राष्ट्रकवि श्री रामधारी सिंह 'दिनकर' जी के जन्म दिवस के शुभ अवसर पर मेरी और से एक कवितांजलि :
"ईश्वर के काव्यदूत "
ओ ईश्वर के काव्यदूत तुम फिर से मही पर आओ,
मानवता फिर सुप्त हो चली आकार उसे जगाओ।
जननी के माथे पर अब भी लटक रही तलवारें,
रोज रोज सुनते रहते हम शत्रु की ललकारें।
कहीं धमाका-आगजनी, फिर कहीं खून की होली,
आतंकित हैं लोग यहाँ, सूनी माँओं की झोली।
सिंहदन्त से गिनती सीखे, अब वैसे शूर नहीं हम,
राष्ट्र जो बांधे एक सूत्र में, लौह-पुरुष नहीं हम।
आ जाओ अब हममें उतना साहस नहीं बचा है,
भरत के पुत्रों के वक्षों में पावक नहीं बचा है।
आओ आकर राष्ट्र जगाओ, भरो प्राण में शक्ति,
राष्ट्रद्रोह की कील उखारें माँ भारती की भक्ति।
धधकानी होंगी तुमको फिर वैसी ही ज्वालायें,
जिस ज्वाला से दीप्त हुई थी स्वाधीनता की राहें। – प्रकाश ‘पंकज’
"ईश्वर के काव्यदूत "
ओ ईश्वर के काव्यदूत तुम फिर से मही पर आओ,
मानवता फिर सुप्त हो चली आकार उसे जगाओ।
जननी के माथे पर अब भी लटक रही तलवारें,
रोज रोज सुनते रहते हम शत्रु की ललकारें।
कहीं धमाका-आगजनी, फिर कहीं खून की होली,
आतंकित हैं लोग यहाँ, सूनी माँओं की झोली।
सिंहदन्त से गिनती सीखे, अब वैसे शूर नहीं हम,
राष्ट्र जो बांधे एक सूत्र में, लौह-पुरुष नहीं हम।
आ जाओ अब हममें उतना साहस नहीं बचा है,
भरत के पुत्रों के वक्षों में पावक नहीं बचा है।
आओ आकर राष्ट्र जगाओ, भरो प्राण में शक्ति,
राष्ट्रद्रोह की कील उखारें माँ भारती की भक्ति।
धधकानी होंगी तुमको फिर वैसी ही ज्वालायें,
जिस ज्वाला से दीप्त हुई थी स्वाधीनता की राहें। – प्रकाश ‘पंकज’